आदमी का दस्तूर है कैसा ,
उसके लिये सब कुछ है पैसा .
डूबे पाप में आकण्ठ ,
चाहे फिर भी बैकुण्ठ .
बोले जीवन में इतना झूठ ,
रह गया सत्य का वृक्ष ठुठ .
बगल में छुरी , मुहं में राम ,
पाप कटाने घूमे चारों धाम .
खेल अजब है आदमी का देख ,
शरीर एक ,मगर चेहरे अनेक .
धर्म की करता सार्थक बातें ,
मौका मिलते ही करता घाते .
खाकर चोट खुद है बडा रोता ,
दुसरों के तन में काँटे चुभोता .
जिस दिन ये अपना असल रुप दिखलायेगा ,
शायद उसी दिन आदमी , मानव कहलायेगा