Tuesday 3 September 2013

आदमी


आदमी का दस्तूर है कैसा ,
उसके लिये सब कुछ है पैसा .

डूबे पाप में आकण्ठ ,
चाहे फिर भी बैकुण्ठ .

बोले जीवन में इतना झूठ ,
रह गया सत्य का वृक्ष ठुठ .



बगल में छुरी , मुहं में राम ,
पाप कटाने घूमे चारों धाम .

खेल अजब है आदमी का देख ,
शरीर एक ,मगर चेहरे अनेक .

धर्म की करता सार्थक बातें ,
मौका मिलते ही करता घाते .

खाकर चोट खुद है बडा रोता ,
दुसरों के तन में काँटे चुभोता . 

जिस दिन ये अपना असल रुप दिखलायेगा ,
शायद उसी दिन आदमी , मानव कहलायेगा


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